May 5, 2024

विपक्ष को घेरने में जुटा रहा चुनाव आयोग, मतदाता लापता

– बीएलओ से लेकर स्वीप अभियान ने दिया दगा
– समर्थ, वीएचए और डोली-कंडी योजना भी दे गयी धत्ता

गुणानंद जखमोला

यह तो होना ही था। वोटिंग को लेकर कागजी और मीडिया युद्ध लड़ रहा था चुनाव आयोग। उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव में इलेक्शन कमीशन की वोटिंग की सुई का आंकड़ा 55.89 प्रतिशत पर अटक गया। लक्ष्य से 19 प्रशित पीछे रह गया। अल्मोड़ा में 46.94, गढ़वाल में 50.84, हरिद्वार में 63.50, नैनीताल में 61.35 और टिहरी में महज 52.89 प्रतिशत वोटिंग हुई। हो सकता है कि आयोग के आंकड़े एक-दो प्रतिशत और बढ़ जाएं। लेकिन सच यही है कि उम्मीदवार और मतदाता दोनों ही उदासीन थे कि कुछ नहीं होने वाला। कम वोटिंग का एक कारण यह भी रहा। यह चुनाव आयोग की असफलता है और यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी भी है।

आयोग ने मतदान प्रतिशत 75 प्रतिशत के दावे किये थे। जिलाधिकारियों ने मीडिया में छपने-दिखने के लिए नए-नए सूट बनाए थे। नोडल अफसर इतराए फिर रहे थे। बेचारे स्कूली बच्चों से लेकर आशा और आंगनबाड़ी वर्करों को सड़कों पर दौड़ाया जा रहा था। लेकिन नतीजा शून्य रहा। 2019 से भी कम मतदान हुआ। क्योंकि सच में धरातल पर कुछ ठोस प्रयास हुए ही नहीं। चुनाव आयोग का सारा ध्यान विपक्षी दलों पर था कि वो खांस भी लें तो उन्हें दबोच लें। निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव की बात बेमानी सी लगती है। भाजपा के एक भी उम्मीदवार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।

अब बात वोट की। मैं देहरादून में रहता हूं। मेरा वोट विजय पार्क यानी टिहरी लोकसभा क्षेत्र के तहत है। मैंने पोर्टल देखा, वोटिंग एप भी डाउनलोड किया। मुझे मेरा वोट नहीं मिला। बूथ पर जाने पर ही पर्ची मिली। कहां थे बीएलओ? 14 अप्रैल तक मतदाता तक पर्ची पहुंचानी थी। अधिकांश लोगों का कहना था कि इस बार पर्ची घर तक पहुंची ही नहीं। जब देहरादून में ही बीएलओ घरों तक नहीं पहुचे तो पहाड़ की पगडंडियां नापी होंगी, इसका सही जवाब कौन देगा?

पलायन आयोग की पुराने आंकड़ों को ही मान लिया जाएं तो पर्वतीय जिलों में 2 लाख 85 हजार घरों पर ताले पड़े हैं। 780 गांव भुतहा हो चुके हैं। पहाड़ के गांवों में अब केवल बुजुर्ग और कुछ महिलाएं बची हैं। लगभग 10 लाख परिवार पहाड़ में रहते हैं। इनमें अधिकांश युवा पुरुष और महिलाएं पलायन कर गये हैं। उनके मां-बाप ही गांव में हैं। यानी एक परिवार में यदि चार वोट थे तो दो पलायन कर गये और दो इतने बुजुर्ग हैं कि पहाड़ की उतराई-चढ़ाई तय कर पोलिंग बूथ तक कैसे पहुंचते? चुनाव आयोग ने इस बात पर मनन और सर्वे क्यों नहीं किया?

बीएलओ से पूछा जाना चाहिए कि जब गांव में लोग रह ही नही ंतो उनके वोटिंग पर्ची किसको दी गयी? मतदाता सत्यापन क्यों नहीं किया गया? पलायन कर गये लोग महज गांव में ग्राम प्रधानी का वोट डालने के लिए ही आते हैं। विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वो न नौकरी से छुट्टी लेते हैं और उन्हें वोट का अर्थ पता होता है। ग्राम प्रधानी के चुनाव में इसलिए जाते हैं कि वो दोस्त, रिश्तेदार होता है या जीत के लिए दिल्ली-देहरादून से आने-जाने और दारू-मुर्गा का खर्च दे देता है।

प्रदेश के नौ जिले पर्वतीय हैं। चुनाव आयोग को बताना चाहिए कि आखिर प्रदेश में कितने 85 प्लस उम्र के मतदाताओं, कितनी गर्भवती महिलाओं को डोली-कंडी की सुविधा दी गयी। किसी ने देखा डोली-कंडी को। कर्णप्रयाग में जिस 102 वर्ष के बुजुर्ग ने मतदान किया, वह पोलिंग बूथ तक कैसे पहुंचा? डोली से, कंडी से या कंधे पर। नहीं पता। भई, डोली-कंडी उठाने के लिए भी लोग चाहिए। पहाड़ों में लोग हैं ही नही ंतो वोट कौन देगा।


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